मैं अपनी कुटिया में खुश हूँ
मैं अपनी कुटिया में खुश हूँ तुम अपना महल सजाना ।
जिस घर से गांठ बंधी है
रखना उसकी मर्यादा ,
मैं क्या था तुम क्या थी
यह सोच न करना ज्यादा ,
वह महके सदा गली प्रिय
जो द्वार तुम्हारे जाये।
मैं निकलूं कभी गली उस तुम घूंघट खींच लजाना ।
मैं अपनी कुटिया में खुश हूँ तुम अपना महल सजाना ॥
संध्या में देहरी पर
तुम एक जलाना बाती ,
चमके चाद सितारे ,
तब मन की पढ़ना पाती ,
जब गहन निशा में चातक
की चीख कभी टकराये ,
तब तब उठ करके साधो तुम अपने साज बजाना ।
मैं अपनी कुटिया में खुश हूँ तुम अपना महल सजाना ॥
हीरा मोती पन्ना
सब कुछ है पास तुम्हारे ,
मैं क्या दे सकता हूँ तुमको
बोलो ? क्या पास हमारे ,
संयम धीरज का बंधन
जब तोड़ जिया अकुलाये ,
तो लाज बचाये रखना नारी का लाज खजाना ।
मैं अपनी कुटिया में खुश हूँ तुम अपना महल सजाना ॥
...काश सभी प्रेमी ऐसे ही हों।
जवाब देंहटाएंचाँद।
आपके ब्लॉग पर हैडर में बनारस की तस्वीर मोह लेती है.
जवाब देंहटाएंरचना बहुत सुन्दर है.
बधाई.
कंचन जी आप के शब्दों में पीड़ा के साथ साथ प्रेम भी है
जवाब देंहटाएंkaavya
जवाब देंहटाएंapnaa parichay
swayam hi de rahaa hai ..
achhee kriti .
पञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
जवाब देंहटाएं***************************************************
"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"