प्रो . हरिप्रसाद अधिकारी को अभिनन्दन पत्र सौंपते कविवर 'कंचन '
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लाली लख सब कर रहे भूल - भूल कर भूल नहीं पता निर्गन्ध हैं ये सेमर के फूल चौकठ, देहरी जब रहा तब थी उसकी लाज चौकठ बिना कपाट है नये - नये अंदाज स्वारथ में तन मन बिका टूट गया व्यवहार मुक्त सभी के मन हुए टूटे मुक्ताहार कौन जानता किस समय घटना घटे विचित्र मित्र शत्रु बन जाएगा, शत्रु बनेगा मित्र अनुसुय्या सीता गयीं चला गया वह राज पत्नी व्रत हैं माँगती सभी लड़कियाँ आज
मैं क्या करूँ ?
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प्यार करना नहीं चाहता हूँ मगर- हाथ कोई बढ़ाये तो मैं क्या करूँ ? रूप की चाँदनी में नहाया नहीं, नीर नयनों से मैंने बहाया नहीं, नैन को मूँद कर चल रहा हूँ मगर- नैन कोई लड़ाये तो मैं क्या करूँ ? हाथ से मैं कलम तक छुआ भी नहीं, शब्द का बोध मुझको हुआ भी नहीं, गीत गाना नहीं चाहता हूँ मगर- गीत कोई कढ़ाये तो मैं क्या करूँ ? हाथ छेनी हथौड़ी गहा तक नहीं, मूर्तिकारों के संग में रहा तक नहीं, मूर्ति छूने से डरता रहा हूँ मगर- मूर्ति कोई गढ़ाए तो मैं क्या करूँ ? मन्दिरों में कभी पग बढाया नहीं, देवताओं को मस्तक झुकाया नहीं, फिर हृदय से मुझे देवता मानकर- फूल कोई चढ़ाये तो मैं क्या करूँ ?
दोहा
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होली में मदमस्त हो करते सब हुडदंग कीचड़ गोबर धूल संग फेंके रंग बिरंग सबकी अपनी रीति है सबका अपना ढंग कोई प्रेम परोसता कोई करता जंग मान मनौवल ना चले चले जोर बस जंग किस पर कितना डाल दें पिचकारी से रंग फागुन फूहड़ हो गया या मनमौज उमंग कोई नंगा हो चला है कोई अधनंग अंदर से बाहर रंगे पी पी कर के भंग मसक अंग सब देत हैं बरबस करते तंग